"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो....
तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर से देखने का अपना सुख है।
मेरा यूँ छुप कर तुम्हें देखना तुमसे मेरी प्रीत को बरसों से अगाध करते हुए आ रहा।
तुम्हारा सुनहरा चेहरा .... अहा
तुम्हारी ये गहराई...उफ्फ़
काश तुम्हें ये बता पाती कि मन न कह पाने का दुःख कितना ज्यादा है।इस से मुझे मुक्त कर दो न ।
कब से अँखियाँ टुकुर टुकुर देख रही तुम्हारी हँसी ।
तुम कब देखोगे मुझे?
अगली बार उड़ी तो तुमसे बिल्कुल सट कर पास गिरूँगी ....
मैं तुम्हें देखना नहीं छोड़ सकती...मेरी आँखें बस मेरा यही कहा नहीं मानती।
कनेर...
तुम मेरे पास नहीं हो पर तुम मेरे पाश में हो।
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