तुम्हारी कहानी और मेरी कविता में हमेशा से सिर्फ़ एक चीज़ common थी ...
वो शुरुवात वाला "क" ।
थोड़ा सा शहर बचा है ...ले जाओ
वो शुरुवात वाला "क" ।
थोड़ा सा शहर बचा है ...ले जाओ
प्रेम से इत्र सिर्फ़ एक बार गिरता है ....उसके बाद हर प्रेम से सिर्फ़ सूखी पंखुडियाँ झरती हैंl
उनके आसपास और शायद दरमियाँ भी ढ़ेर सारा धुआं जमा रहता।वह उसे कहानियों में भर लेता और वो उसे नज़्मों में काढ़ लेती। अब उनके बीच कई पुल हैं...वो भी धुआं धुआं
या शायद
कहानियों में आज बरसों बाद नज़्म गुम है और हर नज़्म में फिर एक मुकम्मल कहानी
या शायद
कहानियों में आज बरसों बाद नज़्म गुम है और हर नज़्म में फिर एक मुकम्मल कहानी
कागज़ पर धुआं लिखना कितना आसान है पर प्रेम को रोके रखना मुश्किल... वो भी कागज़ पर
बिखरते हैं ........खुद को समेट लेते हैं
कुछ हैं ........कुछ लकीरें कुरेद लेते हैं
कुछ हैं ........कुछ लकीरें कुरेद लेते हैं
उन दो लोगों में एक की जगह हमेशा ख़ाली थी।
प्रेम और अप्रेम इस वाक्य की डाली पर साथ खिल रहा।
देखिए तो...
देखिए तो...
मेरे पास लौटने के लिए तुम्हारा वाला शहर नहीं था और तुम्हारे पास मेरा वाला मौसम
ताउम्र एक ही ज़ख्म कब तक धड़कता ?
चारागर बदलते रहे ... सांस आती रही।
चारागर बदलते रहे ... सांस आती रही।
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