लिखो....
"प्रेम"
मैं चुप थी पर चुप्पी कभी नहीं थी
मेरे पास अब बस चुटकी सा दिन बचा है ।
अपनी रात में मिला लो ।
स्त्री का शायद आखरी संवाद यही होता होगा।
खुद से।
बस कुछ एक मौन ढाँक लेती हैं।
खूबसूरत नहीं हूँ... मैं
हाँ ....अद्धभुत जरूर हूँ
ये सच है कि नैन नक्श के खांचे में
कुछ कम रह जाती हूँ हर बार
और जानबूझ करआंकड़े टाप आती हूँ
वही ....झुरझुरी वाले
इसलिए भी शायद अद्धभुत हूँ मैं ।
ज्यादातर लोग सादगी मुड़कर देखते नहीं
पर अद्भुत को अक्सर रुक कर सुनते हैं ....
सुनते हैं ...
जब ये कहती हूँ कि ....
झूठ नहीं सच हूँ मैं
माटी से बना अद्भुत सच
हथेलियों से लेकर उंगलियों तक में फैला हुआ
उस एक कदम की सौ उड़ान में बसा हुआ
देह की हर सलवट में लिखा हुआ
निचले होंठ पर जरा से नीचे तिल पर जमा हुआ
मैं गुज़रती हूँ तो एक सोच बहने लगती है
रुक जाती हूँ तो प्रश्न ही प्रश्न खिल जाते हैं
ये अद्भुत ही तो है....
फूल मेरा मद मांगते हैं
जुगनू दोपहर में उजास पीते हैं
तितलियां थिरकन पाती हैं और हवा मुझसे जीवन
मैं अपनी थाप की मालकिन हूँ
और अपनी ऊष्मा की भी
इन्हें कभी सूरमे में ...कभी महावर में भर लेती हूँ
मेरी मुस्कान कराहती है
मेरे दुख महकते हैं
अद्भुत दिखा क्या ?
अरे सुनो !
अद्धभुत देखा नहीं ...बस छुआ जा सकता है।
लो ! अब तुम देह में ढूंढने लगे मुझे
जबकि मैं तो चाँद की फांक में हूँ
उस आभास के नीले में
अभी उस रंग डूबे लम्स में
और उन अक्षरों के लिहाफ में भी हूँ।
अब भी नहीं दिखा अद्धभुत?
ओहहो !
अद्धभुत सर उठा कर नहीं देखा जाता
लाओ ....
हथेलियों में आँखें धर दूँ कि देख सको
और सीने में कान बना दूँ कि सुन सको
होठों में संवेदना रंग दूँ कि कह सको
और अंतस में हौसला सिल दूँ कि मान सको
चलो फिर से शुरुवात करते हैं..
अब शून्य से न्यून की तरफ बढ़ो
देखो कि....
अद्धभुत हूँ मैं
और मेरी परवाज़ अभूतपूर्व
सबको जादू दिख जाए तो मैं भी खूबसूरत देह ही हुई न।
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...