फ़िर एक रोज़ हम थक जाते हैं प्रेम को पुकारते नकारते हुए ....
और चलना शुरू कर देते हैं
कई दफ़ा आगे
अमूमन पीछे ही
और चलना शुरू कर देते हैं
कई दफ़ा आगे
अमूमन पीछे ही
पत्थर और पहाड़ सिर्फ़ प्रेम में ही डूबते उबरते हैं ...
चल चल कर
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...
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