"जगह" का कोई किरदार नहीं होता
बस ....इक "वजह" होती है
जो बेबाक बोलती हुई
प्रेम को
स्थापित....... विस्थापित .... पुनर्स्थापित
करती रहती है
घोर उदासियों के इस दौर में
हमें उससे भी घोर उदासियाँ
देखने और सुनने की आदत होने लगी है
ये रुका नहीं तो
हमें उदास आंखें इज़ाद करनी होंगी
और पारा पड़े कान भी
इससे भी उदास मंज़र लिखने पड़ेंगे
जाने कितने ?
जाने क्यूँ ?
क्या हम तैयार हैं ?
और हमारी कलम?
घोर उदासियाँ हमें खुरच रहीं हैं।
रोज़ रोज़
धीरे धीरे
एक दिन हम बचेंगे ही नहीं
उदास गर्द बचेगी...
इंसान नाम की
ग्लानि में लिपटी
अनपढ़
जाहिल
असंवेदनशील
अमानुष
फिर जाने कौन कहेगा......
उ .... दास था।
मन जब टूटता है तो कलम बीचोंबीच से चिर जाती है।
उदास कागज़ से शब्द रूठ जाते हैं।
मौन की अपनी भाषा फिर शुरू होती है।
सादी सी बात सादगी से कहो न यार .... जाने क्या क्या मिला रहे ..... फूल पत्ते मौसम बहार सूरज चाँद रेत समंदर दिल दिमाग स...