रंग.... रेखा ..... अक्षर ...... जब सोखना सीख रहे थे .....
तब मन और देह ने रोकना सीखना चाहा
कविता इन सबके बीच एक बार लिखी गयी छापी गई पढ़ी गई और फिर ना जाने कितनी बार धुंधली हुई
अथक कविता.....
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...
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