बस अभी लौटे हैं महफ़िल से मेरे शब्द ....
आते ही बोले ....कल्पना !
हमें तालियों की गड़गड़ाहट नहीं
मौन रूहों को आहट सुना दिया करो
शोर में जी घबराता है
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें