तुम मेरी कहानी का वो मुड़ा हुआ पन्ना हो जो चल रहा है मेरे साथ ।
ज़रा ज़रा पीला हुआ है ,पर मुझे तो अपने साथ सुफेद होता दिख रहा । शायद बुढा रहा है मेरे साथ ।
तुम कभी इत्तेफाक हो ही नहीं सकते मेरी कहानी में
तुम इक सोची समझी साजिश हो जिसमें इश्क़ ने मुझे चुना और मैं तुम पर फ़िदा हो गयी ।
अब कहानी अगर आगे चले नहीं तो बिखर जायेगी ।
इसलिए जब तक मैं हूँ ......
तुम्हारा मुड़ा पन्ना मेरा all time favourite रहेगा ।
तो बस चलते रहो मुझमें .....
सोमवार, 10 अक्तूबर 2016
मुड़ा हुआ पन्ना......
ख़ुशी....
जब मैं खुश होती हूँ,
तो इश्क़ लिखती हूँ
और जब बहुत खुश होती हूँ
तो इश्क़ उकेरता है मुझे
इश्क़ तो शब्दों को हुआ है
मेरा क्या ......
मैं तो बस लिखती जाती हूँ
ख़ुशी - ख़ुशी
हिमाकत....
मुझसे इश्क़ की हिमाकत ना कीजिये
मैं शब्द हूँ..... तुम्हें छिपा नहीं पाऊँगी
ज़ाहिर भी कर दूंगी तुमको
और दिखा भी नहीं पाऊँगी
तसल्ली रखियेगा....
तसल्ली रखियेगा....
मेरे मोह मोह के धागों में आप बंधे रहेंगे
कभी ख्वाइश से
कभी गिरह बनकर
इश्क़ भी उगता रहेगा
बस..... शब्द नहीं होंगे
मैं अपने ढाई आखर इन धागों में पिरो लिया करुँगी
प्रेम के नहीं .... शब्द के
अब से तुम्हारे लिए ......नहीं सिर्फ अपने लिए
तसल्ली रखियेगा.....
मेरे मोह मोह के धागों में आप बंधे रहेंगे
कभी ख्वाइश से
कभी गिरह बनकर
मैं होंगी ज़रा पागल ... मैंने तुमको है चुना
तुम" तक भी शायद "मैं "ही अकेली चल कर आयी थी
अब ....
"आप "से भी वापसी "मैं "खुद ही तय कर लूंगी
चटकी हूँ........ बिखरी नहीं हूँ मैं
मैं होंगी ज़रा पागल ... मैंने तुमको है चुना
मोहर.....
ज़रा सी खुद की कद्र क्या कर ली मैंने ...
कोई नाराज़ हो गया
कुछ रिवाज़ हो गया
मुझे रसीदी टिकट नहीं चाहिए .... तुमसे
मैं खुद -बखुद इक मोहर हूँ
आदत....
मेरी कहानी के पहले शब्द से आखिरी शब्द तक
और फिर .....
उस पूर्णविराम के बाद भी
कई कोसों दूर तक.......
कोई किरदार नहीं दिखता......... सिवाय तुम्हारे
आदत इसे कहते हैं ......
काश....
दिन भर मैं शब्दों में खूबसूरती ढूंढती हूँ .....
तुम्हारी तलाश मुझमें ख़त्म होती है
रात तक मेरे शब्द कहर ढाते दिखते हैं.......
काश ....
खूबसूरती लिखी जा सकती
वादा....
जब भी कुछ लिखती हूँ .....
तो तुम बला के खूबसूरत नज़र आते हो
और ....
वही अपना लिखा हुआ जब तुमसे सुनती हूँ ....
गज़ब खूबसूरत हो जाती हूँ मैं
वादा लिखे जाने का
या .....सुनाये जाने का नहीं है
वादा खूबसूरती का है ....मेरे शब्दों से
मुझसे
तुमसे
बस रह जाने का है.... खूबसूरत
हर बार .......बार बार
मुझमें
तुम में
हम में
औरत....
दिन के उठने से कई घंटों पहले....
अपना सूरज उगा लेती हो
और देर रात तक.....
इन तारों को बुहारती रहती हो
ज़िन्दगी.......
तुम भी "औरत" हुए जा रही हो
अंतर.....
अंतर है ....
तुम खुले दरवाज़ों में भी दस्तक नहीं देते
मैं बंद दरवाज़ों पर भी अपनी अर्जी धर आती हूँ
फ़ासले.....
कुछ फ़ासले तय नहीं किये जाते ....
बस रख दिए जाते हैं दरमियां
"खलिश" और "खला"जैसे शब्द रोपने के लिए
इस पार से उस पार की दूरी खुद सोखने के लिए
रूह.....
ऐ इश्क़ ......
मेरे लफ़्ज़ों में रूह भरने का शुक्रिया
😊😊😊😊😊
आज इससे बेहतर लिखने का मन नहीं .....😊😊😊😊😊
लफ्ज़.....
मेरे वो सारे लफ्ज़ "पुरुष" हैं ....जो इबादत करते हैं
और .....
वो सारे शब्द "स्त्री" .......जो क़ुबूल करते हैं
फिर चाहे..... वो ज़िन्दगी की नज़्म हो
या फिर ......इश्क़ की ग़ज़ल
रेशमी सदी ...
याद है .....
इस मोड से उस मोड़ तक
हमने इक सदी ठहरा रखी थी ....
जो आज भी .... सिर्फ तुम्हें दिखती है
और ....सिर्फ मुझे महसूस होती है
इस मोड़ से उस मोड़ तक ....
इक रेशमी सदी ...
हम तुम ....संग संग .....आज भी .....अब तलक
शोर.....
बस अभी लौटे हैं महफ़िल से मेरे शब्द ....
आते ही बोले ....कल्पना !
हमें तालियों की गड़गड़ाहट नहीं
मौन रूहों को आहट सुना दिया करो
शोर में जी घबराता है
दास्तां......
जब तक कि मैं वो दास्तां समेट पाती ....
तुमने कुछ शब्द बहा दिए
कुछ जला दिए
अधूरी कहानियों को सीने वाले शब्द....
कहीं तो मिलते ही होंगे बाज़ार में
आज कलम...... कुछ ख़ास बिनेगी
घर.....
सोचती हूँ ....
निकलूँ खुद से
और ....इन शब्दों में घर बना लूँ.....
तुम भी तो वहीँ कहीं रहते हो शायद
😊😊😊😊😊😊😊
सुकून.....
सुकून ढूंढते ढूंढते तुम जरुरत हुए
जरुरत होते होते ...प्यास बन गए
तुम सुकून कहाँ रहे ?
ये इश्क़...... इतना बुलबुला क्यों है ?
तस्वीर यहीं कह रही शायद .... सुनके देखियेगा इक बार
रिश्ता....
जाने कौन सा रिश्ता है ......
जो हर बार तुझसे मिल कर फिर शुरू हो जाता है
हूबहू पहली बार की तरह .......
अर्ज़ है ....
सुनो ....
आज इस दिल को लपेट कर रख दो
बस इक हंसी रहने दो ......दरमियां
थोड़े लफ्ज़ .....खट्टे मीठे
इक टुकड़ा ....इश्क़
और वो .....वो इक हिस्सा सुकून भी
इक साज़ ....
इक.... सरकती रात
कुछ मोगरे ....ये रंग पिघलते
इक.... जलता दिया
और रत्ती भर ......तुम
और मैं ....
मैं इन सब में ज़रा ज़रा
अर्ज़ है ....
ख्वाइशों की
कुछ हो न सके ...
कुछ हो न सके ...
इसलिए तो इतना सारा हो गए तुम्हारे लिए
होने की आस और.............................................
................................ ना होने के आभास के बीच
तेवर....
ख्वाइशों का क्या है ....
कभी इक मोगरे की लड़ी में भी सिमट जाती है
कभी उसे तुम भी चाहिए होते हो
Depends ....आज मेरी ख्वाइश का तेवर कैसा हैं ....☺☺☺☺☺☺
कनेर
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...

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