अपनी ख्वाइशों का प्याला
रोज़ ...
दो ही चीज़ों से भरती रहूंगी
कभी जीत से ...
कभी उस जीत को पाने की रीत से
कुछ खामोश लम्हे .....
मैंने अपने पहलु में
सी लिए हैं
डरती हूँ ....
उड़ न जाए
ये खामोश लम्हे .....
कहीं
दिख न जाएँ
ये खामोश लम्हे .....
मुझसे तो
कुछ कहते नहीं
क्या पता
तुमसे ही
सब कह जाए
ये खामोश लम्हे ......
वजह तय करने ...
और
बहाने तय करने के बीच में ही ....
कई बार हमारे "ख्वाब "मर जाते हैं
क्यों ...?
कैसे ....?
और
क्यों नहीं....?
सिर्फ ये तीनों तय करते हैं कि ....
हमारे ख्वाबों की उम्र क्या होगी ?
सोच के देखिये आप ....
सकारात्मक कश्ती में बैठे हों
या
नकारात्मक हवाई जहाज में
वजह तय कीजिये....
बहाने अपने आप तय हो जायेंगे
आदतन तुम कहोगे नहीं ....
और
आदतन मैं पूछूंगी नहीं.....
लफ़्ज़ों को "बेमायना" करना भी क्या कम हुनर है ?
वो भी..... बेबाक सन्नाटों में
न जाने कितनी बार.....
दोहराये जा चुके हो तुम .....मुझमें
फिर भी .....
हर बार जरा सा ......
अजनबी ही रह जाते हो
हूबहू .....मेरे शब्दों की तरह
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...