शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016
कमबख्त दिल
गुरुवार, 21 अप्रैल 2016
अमृता.....
आज अमृता जी को पढ़ा ....
जाना
कि जो सहज है वही सबसे कठिन
चाहे वो साहिर जी के हिस्से का खामोश प्रेम रहा हो
या इमरोज़ के हिस्से का बेबाक इश्क़
अमृता जी हम सबमें नज़र आती हैं
आज भी .....
किसी में साहिर सी
किसी में इमरोज़ सी
बेहद सहज सी
सबसे कठिन भी
क्योंकि वो प्रेम को define नहीं करती
सिर्फ रखती है
सिर्फ करती हैं
अपनी शर्तों पर
जिससे चाहे
जब चाहे
इसी कारण कठिन हो जाती है
सहज होते होते
हम भी तो "अमृता" से ही नज़र आते हैं
सहज से ......पर कितने कठिन
मेरी रूह का मोती....
मेरी रूह का मोती....
सिर्फ मैं ही महसूस कर सकती हूँ
सिर्फ इस लिए कि ......मेरी बूँद
तुम्हारे सीप में
तुम्हारे समुन्दर की
तुम्हारी गहराईयों में
तुम्हारी हिसाब से बंद हो गयी
और
मेरे मोती होने को प्रमाणित कर रही है
ऐसा कत्तई नहीं होगा
मैं ऐसा होने नहीं दे सकती
सीप की घुटन पी है मैंने
उसका अँधेरा जिया है मैंने
उसकी जकड़न पता है मुझे
उस एकाकीपन को जानती हूँ मैं
तभी मोती बन पायी हूँ
खुद से खुद को तराशा है मैंने
मल मल के चमकाया है खुद को
इसीलिए तुमसे जरा अलग हूँ मैं
पीला टूटा सीप हो गए हो तुम
पर
अब भी चमकती हुई मोती हूँ मैं
शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016
सोमवार, 4 अप्रैल 2016
या .....और लिखूं ?
उँगलियों के बीच .....
कलम नचाते रहे
कुछ .....सोच सोच
मुस्कुराते रहे
पर .....
कुछ लम्हे .....
लफ़्ज़ों में ना बंधे ......
तो बस..... ना ही बंधे !
या .....और लिखूं ?
शहर.....
तेरी नज़रों में रोज़ रोज़ की ख्वाइशें
उबकाई आती है अब
वही रोज़ का मैला कुचैला लिबास
वही नया सूरज ....ढूंढने की हवस
तेरे स्वाद में नमक बचा ही नहीं
की भूख बुझा सके
दिन भर का पसीना सुखा सके
चाँद सी रोटी कमाई ..... रिश्तों संग चबाई
तेरी बातों में वो रवानगी गुल है
बस हिचक महसूस होती है
न तू लफ्ज़ खर्च करता है , न एहसास
सिर्फ कहता जाता है ....अनाप शनाप
तेरे सुनने लायक कुछ कहा ही कहाँ ?
ये लादे हुए ठहाके
और कुछ बनावटी कहकहे है
बाकी तो सन्नाटा बह रहा है ....सबके दरमियान
तेरे छूने से कोई सरसराहट भी ना होगी
सब निर्जीव से पड़े हैं
एक से बढ़कर एक अजूबे
बस अपनी धुनकी में .... मद में डूबे
शहर.....तू कितना अकेला है
ख्वाब
करते मुझे .....गुमराह भी
जीवन ....
ख्वाइशों सा .....हरा भरा
इक ख्वाब पूरा हुआ तो .....
इक उग आया .... ज़रा ज़रा
ख्वाब .....
रोज़ उगते ...
पलते ...
मिटते हैं
गर अधूरे रहे ....
तो आँख से रिसते हैं
लफ्ज़
लफ़्ज़ों में ......धागा पिरो रही हूँ
कि कुछ लिख सकूँ ....
औराक़ पर तुम्हें दिख सकूँ ......
पर ...
आज न लफ्ज़ संभल रहे..... न डोर ....
इस लिए ....
पाती पर मुस्कान बिखेर दी है
आज मेरे संग.....कुछ पल .....मुस्कुरा लो ना
इन लफ़्ज़ों को ......चिढा दो ना
बस यूँ ही ......मेरे लिए
"वक़्त "सूख गया है
लम्हा लम्हा ....गिरते गिरते
ये "वक़्त" भी ...
सूख गया फिसलते फिसलते
ऐसा सूखा की ....
दरारें पड गयी इसमें
छू लूं ....या खरोंच दूं .....तो
यादों की पपड़ियाँ ....
भरभरा के गिर गयी मुझमें
सूखे "वक़्त "की सलवटों में
कुछ अब भी .....हरा हरा है
जो अब तलक ...ज़रा ज़रा है
अब भी दबा बैठा है
छिपता ....छिपाता
रोता .....मुस्कुराता
"प्रेम "
वो "प्रेम" जो....
बेशक बूढ़ा हो चला है
झुर्रियों वाला भी
पर ....."प्रेम तो .....प्रेम है "
वक़्त की सलवटों से ....झाँक रहा देखो
मेरे सब्र को .......आंक रहा देखो
"वक़्त "सूख गया है
पर "प्रेम" ....
प्रेम तो चटका भी नहीं
छन् से गिर के ...भटका भी नहीं
तुम फिर सब हार गए
"प्रेम ".....
तुम फिर सब वार गए
कनेर
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...

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