ये ....."मैं " ही हो सकती हूँ ....
जो शब्दों के ज़रिये
अपना कुछ हिस्सा वजूद....
पिरो सकती हूँ तुम में
अपना कुछ अंश.....
खो सकती हूँ तुम में
उन पंक्तियों में..... ढूंढ लो मुझे
ढूंढना चाहो तो .... ढूंढ लो मुझे
"आखर" से शुरू हुई....... मैं
फिर जोड़ जोड़ "शब्द" हुई..... मैं
शब्दों की भीड़ में "पंक्ति "सी खड़ी..... मैं
पंक्तियों के ढेर में "रचना" भी भयी ......मैं
कभी "विराम"............... मैं
वो "अल्पविराम "भी....... मैं
सच कहा .....हर रचना हूँ ...मैं
हर बार इक वही......मैं
हर बार इक नयी ....मैं
कोशिश करते रहो ....
शायद ....नज़र आऊँ ....मैं
या .... एक ही बार नज़र आऊँ..... मैं
हर बार अलग ही नज़र आऊँ .....मैं
या ....नज़र ही न आऊँ... मैं
पर ये भी सच है.....कि लिखती हूँ...... मैं
लिखी जाती भी हूँ ....... मैं
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