नायाब , हर हुनर लगाया है
इक खूबसूरत नाम देके "ज़िन्दगी" को
हर शख्स , खूब आज़माया है
मध्यम आंच में "तुम" इश्क़ पकाते रहना
छौंका प्रेम का "मैं" लगाती रहूंगी
कैंडल लाइट "ज़िन्दगी" गुज़ार लेंगे
मैं कहाँ कह रही हूँ ....कि खुश नहीं हूँ
पर माँ ...ये आधी भरी आधी खाली सी ज़िन्दगी
क्यों सहेज रखी है मेरे लिए
कोख में ढँक कर
हथेलियों में रख कर
साँसे तो जड़ दी तूने मुझमें
माँ ....
पर ज़िन्दगी रखना क्यों भूल रही है
ये नहीं
वो नहीं
ऐसा नहीं
वैसा नहीं
कभी नहीं
कत्तई नहीं ....
ये "नहीं वाली परिधि"
सिर्फ तेरे लिए ....मेरे लिए क्यों ?
इतू .... इतू रोज़ जीने से अच्छा
इतना सारा इक साथ मर जाना
चल माँ ....
या ....तो अपना आधा गिलास ज़िन्दगी उलट आएं
या ....फिर आधा गिलास ज़िन्दगी और पलट लाएं
अब अगर होगा ....तो पूरा होगा
ये आधा ...... दोहरा नहीं होगा
या ....तो ये आसमान पूरा साफ़ होगा
या .....नहीं ही होगा
पर ये धुंधला कोहरा तो बिलकुल नहीं होगा
अब तो सिर्फ बेहतर होगा
या .....फिर मेरा वाला बेहतरीन होगा
Let's make things right, don't make them half right.
Let's just not save, but protect the girl child.
ये चाँद गवाह है ....
कि रात भर .....
इन शांत किनारों पर.....
मेरी अल्हड लहरें.....
इज़हार करती रही ......
आ आके लौटती रहीं ......
और तुम......
तुम थे कि..... बस मुस्कुराते रहे .....
तुम introvert हो ना ?
और मैं .....
मैं बाँवरी ....
लिख के ले लो .....खूब जमेगी हमारी
सुनो ......
अगली बार जब भी आओ........
ये...... "लम्हे " मत लाना .....
ये रुकते ही नहीं ................दरमियाँ
मैंने कहाँ कुछ कहा ....
"सुनो ना" .......यही तो कहा था ....
क्या पता था .....
तुम्हारा सगरा रंग ......"इश्क़" हो जायेगा
मीलों लंबा सफ़र करके ...
आज
इक पुराना टुकड़ा एहसास
उस तरफ से ...
इस तरफ चला आया
मुझमें दस्तक देकर
मुझे छू कर बोला ...
दिल "बहुत"है मेरे पास
थोड़ी "रूह" दे सकोगी .....
और बस मैं ....."रूहानी" हो गयी
अगर "मैं "शब्द हूँ .....
तो "तुम" .....
मेरे अर्थ के सिवा ....
कुछ और .....हो ही नहीं सकते
दो कदम बढ़ा कर आ तो गए हो मेरे पास
बोलो ....क्या तलाश रहे हो मुझमें
इक किरदार
या
बस इक अक्स
इक सच
या
बस इक मिथ्या
इक उम्र
या
बस इक पल
इक भंवर
या
बस इक समर
इक प्रीत
या
बस इक मीत
इक क्षितीज
या
बस इक मरीचिका
सब बन सकती हूँ .... सिर्फ तुम्हारे लिए
कुछ " धुंध" .....तुम्हारे नाम सी
सर्द मौसम में ही नहीं .....
चिलचिलाती धूप में भी .....
मुझे ओढ़े रहती है
सच ही तो है .....
कुछ मौसम ....कभी नहीं बदलते
कुछ एहसास ...कभी नहीं अखरते
© कल्पना पाण्डेय
कोरे कागज़ पर .....
कुछ खामोश लफ्ज़
धर के तो देखो
कुछ पिघलते रंग
भर के तो देखो
देखो तो सही .....एक बार
एहसास के
इस पार से .......उस पार
पहली बार
और शायद .......आखिरी बार
क्या पता
मैं नज़र आ जाऊं
इन शब्दों की सलवटों में
इन रंगों की आहटों में
तुम्हारी
सिर्फ तुम्हारी .....कल्पना बनकर
ज़रा ज़रा ....हाँ - हाँ में वो .......ना
ज़रा ज़रा .....ना - ना में वो ......हाँ
उफ़....
ये .....आधे - आधे ......पूरे हैं हम ........
फिल्मों में ही अच्छा लगता है
है तो है ......बस☺☺☺☺☺
उस बार जो दौड़े थे ना रेस में.....
अरे वही .....खरगोश वाली .....
हां -हाँ ....वही तेज़ तेज़ _धीरे धीरे वाली ....
बस ....बस वही तुम्हारी जीत वाली .....
तब से ......आज तलक
उसी जीत के खोल में दुबक कर बैठे हो ....
देखो .....कितनी रातें निगल चुका सूरज ....
कितनी चांदनी....... पी गया वो बादल ......
पर तुम .....बस पसरे ही रहे ....
वो क्या कहते हैं उसे .....
अंग्रेजी में.....
हाँ .....याद आया "comfort zone"
पर ......हैं ना कुछ "खरगोश" .....
जो तज़ुर्बा खाते हैं .....
और
आत्म बोध पीते हैं ....
जीत अब मायने नहीं रखती उनके लिए ....
वो तो जगजाहिर हो चुके ....
अपने हुनर के माहिर हो चुके
और तुम.....
तुम बस .....नकारात्मक खोल में ही दुबके रहना....
बातें बनाना .....और बातें ही खा लेना
अब जाना ....
कि तुम्हें अपना nickname ....
कछुआ क्यों पसंद है .....
खोल वाला प्राणी ......थोडा odd है ना
आज शब्दों को पिघलने दो ......दरमियाँ
आज की बिसात...... खामोशियों के प्यादे खेलेंगे
बस...... तुम सुनते रहना
मुझे ....कहने देना
मैं .....तुम में ....."गुम" रहती हूँ
और
तुम...तुम मुझमें ......"गायब "
मेरे जैसे बन जाओगे ....जब इश्क़ तुम्हें हो जायेगा ....
कभी "ग़ज़लें" भी..... सुन लिया करो
झूठ क्यों कहूँ....
होता है मेरे साथ .... कई बार
कोशिश करती जाती हूँ ....
फिर- फिर हारती जाती हूँ .....
इक बार नहीं..... कई बार ...
पर....
कोई .....रहता है मुझमें
जो मुझे कहता है .....
तू रुक कल्पना ! ....मैं तेरे लिए पानी लाता हूँ....
जाने ....."अहम" है वो मेरा .....
या ....
वो .... सिर्फ मेरा "वहम"
"तुम" मुझे ......मेरी कविताओं में ढूंढो
"मैं" कल - कल बहती नज़र आऊँगी
जो "तुम"..... ढूँढना चाहोगे मुझे "कल्पना" में
तो "मैं" छल छल छलकती बिखर जाऊँगी
यकीन मानो ...."कल्पना" शब्दों में ...
ज्यादा खूबसूरत नज़र आती है
बाकी "ये कल्पना" तो ......
अंतस से होकर..... बस गुज़र जाती है
"तुम "और "मैं "शब्द ही तो हैं....
इक ही किताब के
कभी "तुम" .....इस तरफ
कभी "मैं" ......उस तरफ
जानती हूँ .....तुम "विलोम" हो
और .....रहोगे भी हमेशा
पर तुममें .....
अपना "पर्याय "क्यों महसूस होता है
हर बार .......बार बार
शायद .....शब्द हमें ......कुछ सीखा रहे हैं
अभी धुंधला सा है कुछ ......जो दिखा रहे हैं
मेरी बात और है...
मैं और......... मेरी परछाई इक तरफ
इस ...ज़माने भर की खुदाई इक तरफ
कैसे हिलाऊँ मैं अपनी जीत का प्यादा .....
मैं तो देख सकने वाला अँधा हो गया हूँ
सामने वर्त्तमान का सच पड़ा है
और
मैं अतीत और भविष्य अँगुलियों से टटोल रहा हूँ
कैसे हिलाऊँ मैं अपनी जीत का प्यादा .....
मैं तो सुन सकने वाला बहरा हो गया हूँ
सामने कोई सच बोल रहा है .....
और
मैं अपने कानों में भ्रम उड़ेल रहा हूँ
कैसे हिलाऊँ मैं अपनी जीत का प्यादा ......
मैं तो बोल सकने वाला गूँगा हो गया हो
सामने शब्द ही भिड़ा रहा हूँ
और
खुद अर्थ का अनर्थ बना रहा हूँ
जीत तो होगी बाद में ....
Detoxification...... करना होगा पहले
क्या कर सकते हो मेरे लिए ?
... अच्छा उस दिन जो ....
बारिश हुई थी मुझपर ...
उसकी कुछ बूंदें ......
अब तलक गीली हैं मुझमें ....
बस ......रुकी भर हैं मुझमें .....
क्या उस पर .....
अपना नाम लिख सकते हो ?
ठीक वैसे ही ......
जैसे मैंने .....अभी अभी तुम्हारा नाम ....
इन फूलों पर लिखा है .... अपनी ख़ुश्बू से
जब जब रात जागती है मेरे साथ
और......
दिन ऊँघता हुआ गुज़र जाता है ....
तारे ...घूरते नज़र आते हैं
और ये ....ये मुआं बादल ...
मुझपर पसर जाता है ....
क्या बताऊँ .... कैसा लगता है ?
खुद में ही धंस जाने को जी करता है ....बस
हवा को निचोड़ कर....
पी जाने को जी करता है...... बस
लगता है ......बस अभी ये मंज़र पलट जाये
ये काला .... भूरा जो भी है सिमट जाए
ताज़ा ख्वाइशों का झोंका आये
बस ....मुझे छू जाये
मुझमें ....मेरा सा ही
कुछ.... नया गुज़र जाये
इस सीले पन को .....सोख ले कोई इक बार फिर
मुझे बिखरने से....... रोक ले कोई इक बार
उस "कोई"....... में भी दूर तक....आज भी
"मैं "ही "मैं" नज़र आई
इस लिए.... खुद ही खुद मन की तार से
ख्वाइशों का दुपट्टा खींच कर ..... लपेट लिया
इक सिरे में....उमींद के फूल
दूसरा ....."कल्पना" हिरणी को थमा दिया
देखो....
उमींद की कुलांचे भरती ....कल्पना हिरणी ...."मैं "
बोलो ....अब ज्यादा सुन्दर हूँ ना मैं ?
खुद में झांक कर देखें ......
आज तो .....बाकायदा हक़ के साथ
कि ....रोज़ इक "महिला "को जीते हुए ....
क्या अब भी कुछ "महिला" सा बचा है खुद में ?
अगर इक क़तरा भी....
" महिला सा " कुछ दिखता है भीतर तो .....
आप ...."बेहद"..... हो
आप...."बेशक"... हो
"फख्र हासिल है ".....आपको
हर अंतर पाटने का
हर ख़ुशी बांटने का
तो चलिए मानते हैं "महिला दिवस" ...... अपनी शर्तों वाला
"ना ".....से "हां "......तक की दूरी
न "तुम" तय कर सकोगे
न "मैं "
ये तो ....तय करेगा
हमारा "रवैया"
क्योंकि "हम तुम" तो ....स्थिर थे ...
स्थिर ही रहेंगे
बस ....."ना" और "हाँ" की पतवार थामेगा ....
हमारा रवैया
इन दोनों के बीच बहेगा....
हमारा रवैया
इक दिन .....
"ना" को "हां" में .....
बदल कर ही रहेगा......
हमारा रवैया
जाने क्यों ......
हमारा मन तो "हाँ "का ....दीवाना है
पर ....ये दिमाग़....
"नहीं "को पागलों की तरह चाहता है .....
आँखें..... "हाँ "कहने को ललचाती हैं
पर..... ये कान ....
"नहीं "की लेप हमारे होठों में मल देते हैं
हम जानते हैं ....
भली भांति मानते हैं....
कि .......
"नहीं" को "हां "में बदलने के लिए
"असंभव" को "संभव" करने ले लिए
हमें .....
खुला मन
खुला दिमाग
खुली आँखे
खुले कान
और..... सदा
खुले हाथ ही तो चाहिए
बंद द्वार में..... प्रवेश कैसे करेगी ख्वाइशें ?
और ....
कैसे दस्तक देगी जीत ?
पर हम तो हम हैं.....
चलो इक बार ....बदल के देखें
"नहीं " में..... "हां" की ..दखल देके देखें
ये ....."मैं " ही हो सकती हूँ ....
जो शब्दों के ज़रिये
अपना कुछ हिस्सा वजूद....
पिरो सकती हूँ तुम में
अपना कुछ अंश.....
खो सकती हूँ तुम में
उन पंक्तियों में..... ढूंढ लो मुझे
ढूंढना चाहो तो .... ढूंढ लो मुझे
"आखर" से शुरू हुई....... मैं
फिर जोड़ जोड़ "शब्द" हुई..... मैं
शब्दों की भीड़ में "पंक्ति "सी खड़ी..... मैं
पंक्तियों के ढेर में "रचना" भी भयी ......मैं
कभी "विराम"............... मैं
वो "अल्पविराम "भी....... मैं
सच कहा .....हर रचना हूँ ...मैं
हर बार इक वही......मैं
हर बार इक नयी ....मैं
कोशिश करते रहो ....
शायद ....नज़र आऊँ ....मैं
या .... एक ही बार नज़र आऊँ..... मैं
हर बार अलग ही नज़र आऊँ .....मैं
या ....नज़र ही न आऊँ... मैं
पर ये भी सच है.....कि लिखती हूँ...... मैं
लिखी जाती भी हूँ ....... मैं
ख्वाइशों " की राह पर ......
चलो ....
दौड़ो ....
रेंगो ....
उड़ो.....
फिसलो ....
संभलो....
डूबो.....
उबरो....
ढूंढो....
भटको ....
चढ़ो ...
उतरो ...
पर .....
वापस ......."कभी मत मुड़ो"
मुड़कर फिर देखने पर......
"ख्वाइशें" नहीं .......बस "शोर" दिखेगा
अपना ही "आइना" ......"कमजोर" दिखेगा
जिंदगी जब भी मिले ....
उठा लीजिये ......जीने के लिए
दो चार "चाक" तो ....
अब भी बचे होंगे ...सीने के लिए
शब्दों की कॉलोनी" में आए हुए ....
कुछ ही अरसा हुआ
इससे पहले ....जी तो रही थी ...
पर ....कह नहीं रही थी
देख तो रही थी ...
पर ....दिखा नहीं रही थी
मेरी नज़रों से देखोगे .....
तो कॉलोनी का हर "घर" .....
इक खुशहाल "शहर" नज़र आएगा
"सामान " ?
इक कलम ....
कुछ रोशनाई ....
कुछ उजले काले पन्ने ...
और .....
ठसाठस भरे मुस्कुराते शब्द .....
"नज़ारा" ?
कल्पना की ....सड़क
तजुर्बे के .....दरख़्त
एहसासों का ....आसमान
बेबाक .....चाँद सूरज
और .......
मेरी कॉलोनी के बन्दे ...
"बन्दे" कैसे ?
समझ लीजिये .....
शब्दों की चलती फिरती "दुकान".....
"फर्क" ?
कुछ ख़ास नहीं ....
किसी की नयी ....किसी की पुरानी
किसी की बड़ी .....किसी की छोटी
कोई ठेला खोमचा लगाकर भी ....
शब्द उभारता हुआ
"हालात" ?
सब खुश ....
सब प्रसन्न ....
सब मदभरे.....
अपने अपने शब्दों की जीत पर
अपने हिस्से कीे कागज़ से प्रीत पर
"व्यवसाय" ?
कुछ सफल शब्दों के मालिक
कुछ गुमनाम शब्दों के सौदागर
कुछ साहित्यिक शब्दों के हाकिम
कुछ आभासी दुनिया के बाज़ीगर
पर सब का इक ही .....तख़ल्लुस..... "कलमकार"
शब्दों की कॉलोनी में ....
अदृश्य शब्दों से बंधे हम सब ....
कभी दूर .....कभी पास
पर ......
जाने कैसे.....
सब एक जैसे ....आसपास
फूंक दो ना .....कुछ टुकड़े हवा मुझ पर
रख दो ना ....कुछ चुटकी धूप यहाँ
गिरने दो ना .....कुछ मुट्ठी जल मुझ पर
आज ....
इस कल्पना की मिटटी पर ....
रस भरे .....शब्द उगाने की जिद्द है
शब्दों का बसंत ......जीना चाहती हूँ
जीना चाहो मुझे .....तो क्या कुछ नहीं है मुझमें ....
अंतस में .......मोती ही मोती बिखरे पड़े हैं
थोडा चलना होगा तुम्हें ......
मेरी तरफ
बिना शर्तों वाला .....
रास्ता पकड़ कर
और....
कहना भी होगा ......कि तुम्हें जीना चाहता हूँ
ये अंतस के मोती ........ दिखाना चाहता हूँ
जरा मुश्किल होगा .......
कोशिश करके देखो जरा ......
शायद हो जाये इस बार
नहीं तो......
किनारे के पत्थरों में बैठना
लहरों में बिम्ब ढूंढना
रेत पर नाम लिखना
टूटा शंख हथेली पर धरना .....आम हो चुका
उथले समुन्दर के किनारे ....
मेरे अंतस को .....छू नहीं पाएंगे
इक बून्द भी मुझे ....जी नहीं पाएंगे
अगर .....मेरा आने वाला कल
मेरे पिछले कल का.... प्रतिलिपि ही होना है
और .... ताउम्र होते ही रहना है
तो ......सोचती हूँ ....
रुक जाना....... बेहतर है
रोज़ ....ख्वाबों को मारने से बेहतर है
मैं ......ही इक बार बिखर जाऊँ
नयी सोच...... लेकर
पुनर्जीवित हो कर देखूं
खूब .....सजग हो कर चली थी.... अब तलक
अब थोडा भ्रमित होकर देखूं
बहुत हुआ ....
ख्वाब भी थक गए .....
पलकों और दिल के तहखाने में पड़े पड़े
अब के सोचा है .....
इन्हें .......नई सोच
और ....
नए सच .....के सुपुर्द कर दूं
यक़ीनन .....
कल मेरा है
ये ......मेरा नहीं......
मेरे हर ख्वाब का कहना है
रास्ता ......वो नहीं ....
जो भीड़ से होकर गुज़र जाता है
रास्ता ....वो है ....
जहां सिर्फ तू ही तू नज़र आता ह
ख्वाब" ..... "चाँद" ही तो हैं
संगेमरमर सरीखे
चटक न जाएँ ....
इसलिए ...वो ................................
"ऊंची अटारी" पर रखे हैं
आसान तो नहीं है ........ख़्वाबों के उस पार जाना
जमीं पर रहकर ........अनगिनत "चाँद" पाना
पर.....
मुमकिन भी तो है .....ख़्वाबों के उस पार जाना
जमीं पर रहकर...... उस "चाँद "का दीदार पाना
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...