ये यादों के उजाले
जाने कौन सी उम्मीद लिए
मेरा दर खटखटा रहे हैं ?
जानते है .....
कि मुझमें छाया हुआ है
"कोहरा"
मसरूफियत का ,
भागती दौड़ती
ज़िन्दगी का
वक़्त ही नहीं ,
कि मैं
वो अपनापन दे सकूँ
वही पुराना ,
दीवानापन दे सकूँ
वजह भी नहीं ,
अब जगह भी नहीं ,
तितलियों सी यादों को
सजाने के लिए,
सिरहाने में
बसाने के लिए,
फिर किस्मत
आज़माने के लिए ,
एक बार फिर
दूर जाने के लिए
कल्पना पाण्डेय
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