कुछ किरदार .....
"शून्य"ही अच्छे लगते हैं
वो चाह कर भी
"न्यून " से ऊपर नहीं उठ सकते
वजह .....
वजह तो वो खुद ...
स्वयं में ढोते फिरते हैं
ऑंखें ......ज़ुबान से बोलती नहीं
ज़ुबान से ......सोच मिलती नहीं
सोच .......आत्मा की सुनती नहीं
रिक्त रहते हैं ....
दूसरों को रिक्त करते हैं....
टकराते फिरते हैं ......
ऐसे " शून्य" किरदार
हर मोड़ पर
अपना अस्तित्व टिकाने के लिए
खुद को जिताने के लिए
पर वो कहते हैं .....ना
"शून्य " .....गोल है
अपना ही सिरा .....खुद पकड़ने वाला
सब लौट कर ....लहर सा आने वाला
अपना जो ढाया .....खुद पर आने वाला
ये "शून्य" किरदार ....
फिर अकेले नज़र आते हैं
शून्य ही जीकर..... उम्र भर
शून्य में रहकर ...... उम्र भर
उसी " शून्य" पर खड़े नज़र आते हैं
© कल्पना पाण्डेय
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