दो आईने हैं .....
इक वो .....जिसे "मैं "देखती हूँ ....
पर कभी कभार ......दिखती हूँ
और
इक तुम .... जिसमें "सिर्फ मैं" दिखती हूँ
हर बार .....जो मैं दिखना चाहती हूँ
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें