इल्म है मुझे .....
आज भी तुम वही खड़े हो
जहाँ से हमारा आसमान बंटा था
अपना आधा टुकड़ा
नम दुप्पटे में छिपाए हुए
आगे चल दी थी मैं
कभी न मुड़ने के लिए
और तुम ....
तुम अपना आसमान
गीले रुमाल में धरते दिखे
फिर कभी न मिलने के लिए
लम्हे रुके ....
पर ज़िन्दगी से लिपट कर
फिर दौड़ने लगे
कभी थमे ....
पीछे भी मुड़े ,
पर फिर चलने लगे
ज़िन्दगी देखो कितनी मुतमईन है
अपनी अपनी छत पर
अपने हिस्से का आसमान
चिपका दिया
और जुट गए
चाँद ,सूरज ,तारे ढूंढने
पर आसमान तो आसमान है
बेहद ....
बेशुमार ......
कुछ उस छत से
कुछ इस छत से बढ़ा
और विलीन हो गया सब
खुश हैं ......
मैं
तुम
और
हमारा आसमान
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