देखा उन्हें जाते हुए
हर अरज़ ....हर उमींद
फर्श से उठाते हुए
इक बार फिर
खुद को समझाते हुए
हमने लम्हों को अलविदा किया
बे लफ्ज़ होकर
इस बार कहीं ज्यादा .......
बेबस हो कर
कल्पना पाण्डेय
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...
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