दिन भर के काम से निपटी ,खिड़की से पर्दा हटा के बस बिस्तर पे लेटी ही थी तो देखा चाँद टंगा खड़ा था I आँखों के ठीक सामने I
पसीने - पसीने , हांफ भी रहा था शायद I
महसूस हुई उसकी धकधक वाली सांसें I मैंने इशारों से पूछा....यहाँ कैसे ?
सकपकाया सा बोला .....बस जैसे तैसे !
मैं लेटी लेटी मुस्कुराती रही I शायद उसे भी मैं ऐसे ही भाती रही I
बिना लफ्ज़ , बिना लब हिले बात करने का हुनर सीखता रहा और उसकी हर अदा पर मेरा भी मन पसीजता रहा | ऑंखें नींद में मदहोश हो गयी | तभी कुहनी मार के चाँद बोला ....सुनो सो गयी ?
सुबह आँख खुली , तो सिरहाना शीतल था अब तलक | जा चुका था चाँद तब तलक | खिड़की के बाहर अजीब हलचल थी | पता चला चाँद की रात भर गुमशुदगी थी | सारे तारे लड़ लिए थे आपस में ..........की मेरा चाँद तेरे सिरहाने तो नहीं पहुँच गया कल ?
और वो .....मुआं ....सूरज मंद मंद मेरी कुहनी की तरफ जाने क्या - क्या इशारे कर रहा था |
कल्पना पाण्डेय
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