अपने लफ़्ज़ों से
तुम्हारी खुश्बू समेटते समेटते
अब की ....
कलम में ख़ामोशी उड़ेल रहे हैं
कागज़ खाली छोड़ रहें है
समझ सको तो
सिर्फ "मुस्कुरा" देना
इक बार फिर
मेरी कोशिश महका देना
कल्पना पाण्डेय
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...
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