पाटते पाटते
इक बेहद
पथरीला "मरुस्थल "
तैयार कर बैठे हैं
खुद के लिए
जो रात में जलता है
और
दिन भर चुभता है
एहसास.....
"बालू" हुए जा रहे हैं
मसरूफ हथेलियाँ ....पर बीच रुकते नहीं
शब्द हैं तो..... पर बीच गलते नहीं
अपने अपने वजूद को
"पानी" देने की जिद्द ने
"कैक्टस" की
बाड बना दी है
रिश्तों में भी
चाहकर भी कोई
पोंछ नहीं सकता
इस एकाकीपन को ....
इस खालीपन को .....
सब हैं ......पर अकेले..... हैं
सब है ......पर और....है
कैसी ?
उफ़ ये कैसी "मरीचिका" ?
भागते भागते.....
रेंगते रेंगते.......
खुद पर सैकड़ों खराशें
पर फिर अगली सुबह
इक नया मरुस्थल
अकेले पाटने की बेबसी
ये सोच कर की ......
दिन के बाद रात के पीछे भाग रही है ज़िन्दगी
ख़्वाबों के खातिर बस जाग रही है ज़िन्दगी
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