दिल की तरफ टेढ़ी मेढ़ी चाल से
चली आ रही भावनाओं को कहाँ संभालती
मन बोला क्यों न इन पे कविता लिख डालती ?
कागज़ को बस कलम छूने ही वाली थी
की कुछ शोर सुना
अपने में झाँका
सुख -दुःख में" तू तू मैं मैं "हो गयी थी
सुख आगे आना चाह रहा था
दुःख उसे पीछे धकेले जा रहा था
इनका द्वन्द सुनती जा रही थी
मैं लिखने का अभिनय करती जा रही थी
कुछ देर तो सुनती रही
फिर झल्ला के बोली .....
सुनो ....दुःख ,कुछ देर तुम सुख को गोद में बिठा लो
जब तुम थक जाओ ,सुख तुम्हें उठाएगा
जो थका हुआ आएगा ,वही मेरी जिंदगी में आएगा
एक चुप्पी सधी
शोर कम हुआ
कलम उठाई
पहला शब्द जेहन में आया ...."जी ले जरा" !
तब से आज तक सुकून है
सुख - दुःख बारी बारी आते हैं
थके हुए चूर से मेरी पनाह पाते हैं
अब उन्हें मेरी लत लग गयी है
मज़े की बात ये है की...
अब उनकी आदत हो गयी है
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