बड़े अरमानों से धरा पर जन्मी थी मैं
पंखों में ख्वाब सजाये हुए
कुछ ही पल तो हुए मुझे आये हुए
ये कैसी चुनर मुझ पर रख दी गयी है ....माँ
पंखों में मेरी आत्मा भी ढँक दी गयी है .....माँ
तुम तो कहती थी ......
ये हरे पत्ते ,
ये बेलबूटे
इस चुनर के बहुत खूबसूरत हैं
पर मैं जान गयी हूँ .....
ये पाबंदियों के पैबंद
बड़े बदसूरत हैं
दम घुटता है मेरा
वजूद सिसकता है मेरा
मेरे पंख ला दो ....माँ
ये बैरी चुनर छुपा दो
जाने दो मुझे .....
आकाश के उस पार
मैं भी देखना चाहती हूँ
ख़्वाबों का मेला
ख्वाइशों का बाज़ार
कल्पना पाण्डेय
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