अधखिले फूलों की
दर्दीली दुनिया
सड़क पर पलते
कई सारे छोटू
और ढेर सारी मुनिया
आसमान और खिलौना
एक सा लगता ,
देखते बस दूर से
बस कोई छू नहीं सकता
खरोंच लगे या घाव गहरा
अब फर्क नहीं पड़ता ,
मासूमियत नुच गयी है
शरीर हो गया सस्ता
सूखी रोटी और जूठन
अब और कुछ नहीं पचता ,
स्वाद और भूख का
भला आपस में क्या रिश्ता ?
जन्मा सड़क पर
कूड़े पर पला
सड़क पर जी जाता ,
ये कैसा अजब फूल है
जो सूखे दरख्तों पर भी
पनप जाता ?
बेबस ,बेघर ,बेनाम बचपन
बेहिसाब तरसता ,
जाले तक़दीर में हों तो
रोशन जहां क्या मायने रखता ?
मासूम चेहरे ,थोड़े मटमैले
दिल तो इंसानी ही धड़कता ,
फिर क्यों इंसानियत का ज़ोर
इनके लिए नहीं चलता ?
सड़क पर इन अधखिले
फूलों को देख
कल्पना का प्रश्न
हर बार उठता ,
इन मायूस फूलों को
बोने से पहले
हे भगवान्
तेरा दिल क्यों नहीं दहलता ?
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