क्यों छुआ ? चटक गयी न मैं
लो ......अब रिस रहा है नेह भर-भर
यही चाहते थे न तुम ....स्नेह खुद पर
अंजुरी में भर लो या
अंतस में धर लो
आधी भरी हुई
आधी खाली सी मैं
माटी के पैमाने सी मैं
छुआ था ना .....
इस लिए चटकी थी मैं
करीब आओ
देखो तो सही
इक दरार ही नहीं
हैं खरोंचे भी कई
आधी रंगी रंगी
कहीं बद रंग भी मैं
फिर कैसे भाति हूँ मैं
चेहरे में चमक लाती हूँ मैं
शायद तेरी ही
माटी की मैं
शायद
तेरे ही पैमाने की मैं
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