ठीक तुम्हारे पीछे ....
मैं खड़ी हूँ......
खूबियों ...और
खामियों .....
की फेहरिश्त सी
अबकी .....
नज़र ....और
नज़रिये ....
का चश्मा बदलते रहना ....
सिर्फ ....
दूर ....और
पास ....का नहीं ....
उस ग्लास .... और
इस फ्रेम का नहीं
गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016
खूबियां...और खामियां....
ड्राइविंग
कैसे समझाऊं .....कब समझोगे ?
कि "तुम"..... "मोड़" नहीं हो मेरे लिए
तुम "पड़ाव" हो
मेरा ठहराव हो
उस "डगर" पर
जो "आती - जाती "नहीं ....
सिर्फ जाकर थम जाती है
वही कहीं रम जाती है
कभी आना चाहो मुझ तलक
तो..... इसी "रस्ते "आना
और सुनो ! "हम" नाम की "तख़्ती" ढूंढना
जल्दी पहुंचोगे
बिना बूझे
इक बात और ..... मेरी तरह "सुकून" से आना
जानते तो हो ....
मुझे "शॉर्टकट्स".....
और......"रैश ड्राइविंग"से कितनी चिढ है
बुधवार, 17 फ़रवरी 2016
वक़्त नहीं .....
नया साल ....
रुका हुआ समुंदर ......
सोमवार, 15 फ़रवरी 2016
दो आखर की "कविता "....
दो आखर की "कविता".... देखना चाहो.....
तो ये लो ...."आइना "
पर....
इक गुज़ारिश है .....
कुछ पल ...."नैन" मेरे धर लो
दो आखर की "कविता " से हो ......"तुम"
"मैं" नहीं.....
मेरी "कलम " कहती है ......
रविवार, 14 फ़रवरी 2016
इज़हार......
उदासी .....
एहमियत.....
सुन हवा ....
मेरी डायरी .....
बचपन......
खलिश.....
रूबरू....
मेरा फख्र ....
तलाश .....
आज बस और बस.....
वो खत .....
शब्द.....और प्रेम
हर बार ......
सिर्फ शब्द ही तो होते हैं..... हमारे सेतु
बस.... गिने चुने
सीमायें ओढ़े
और इक ....आहट धुंधली धुँधली
हाँ .....और........ ना के बीच डोलती
वो कुछ जो लिखा ही न गया हो अब तलक
वो कुछ जो कहा ही न गया हो अब तलक
पर उभर रहा है इस तरफ भी
और .....शायद उस तरफ भी
अदृश्य .....
अपार .....
अनंत .....
इस छोर से .....उस सिरे को
महसूस होता हुआ
महफ़ूज़ होता हुआ
कुछ ....पनप रहा है शायद
या ...
चुका है .....
और .....
वाला है .....
के बीच दिख रहा है शायद
मुस्कुराता हुआ .....
अब की मिलोगे तो .....पूछूंगी कि ....
हम तो शब्द बोते हैं तो ......
ये प्रेम कैसे फ़ूट रहा है ?
शनिवार, 13 फ़रवरी 2016
माँ की व्यथा ...... बिटिया का कथन......
बिटिया की माँ हूँ ,सोच के ही , सिहर जाऊं
खुबसूरत है ये दुनिया , बतला तो रही हूँ
घिनौना आस पास देखूं , खुद बिखर जाऊं
कब तलक बंधी बंधी रखूं ये नन्ही चिड़िया
ममता के मारे , कहीं पंख ही न क़तर जाऊं
अल्हड लहर, उफनती ख्वाइशों सी है वो
फख्र करूँ ,की फ़िक्र , मैं किस डगर जाऊं ?
वक़्त नहीं , ज़माना कहे की घर जाऊं
अँधेरा तो फिर भी नोच लूँ अपना
अंधेर हो जाये ,तो बता किधर जाऊं ?
फिक्रमंद हैं , परियां भी अर्श की
भूल से ऐसे फर्श पर न उतर जाऊं
मुदत्तों से , इक फरक दिखा है मुझको
गिला इक यही लिए , खुदा के नगर जाऊं
सफ़र .....
उन आँखों की हसरतें
मुझ तक
रफ्ता रफ्ता पहुँची
और
क़तरा क़तरा
पिघळ गयी
मुझ तक
पहुँचने से पहले
रुक गयी
मेरी आँखों में
सूख गयी ---
मोम सी
उसकी
ख्वाइश
मेरी आँखों
के "सफ़र "में
जली
पिघली
सिमटी
आज फिर
राख हुई
ख्वाइश
आखरी फरमाइश.....
अब कुछ पल
मुझे ऐसी जगह ले चल
जहाँ मैं और सिर्फ मेरी परछाई हो
अब मुझे वो ज़मी बक्श
जहाँ ना मेरी जान पे बन आयी हो
जो मैं जी के आयी हूँ
स्त्री होने का जहर
जो मैं कुछ देर पहले
पी के आयी हूँ
"मैं "और .....मेरे अपने
अपने और ......सपने
सपने और .....हकीकत
हकीकत और ......सोच
सोच और .......रिवाज़
रिवाज़ और .....रवायतें
रवायतें और .....दर्द
दर्द और ......फिर वही "मैं "
ये "परिधि "
पूरी करके आयी हूँ
बेहद टूट कर आयी हूँ
क़तरा क़तरा नुच के आयी हूँ
मुझ पर तू दुआ रख दे
मेरा वजूद कोई छू न सके
अगले जनम में वो हक़ दे
अपनी पनाहों में खो जाने दे
जागी हूँ उम्र भर इस चैन के लिए
किसी दूसरी दुनिया का हो जाने दे
रिश्तों के बादशाह....
बस "मैं" को "तुम" पर फक्र हो जाये
खुदा कसम ....."हम"
रिश्तों के बादशाह हो जाएँ
,एहसास सस्ते नहीं.....
चुगते संग हैं ,चहकते नहीं
कूड़ा है ,हम रखते नहीं
गम सोखते हैं ,ढंकते नहीं
ताज़ो - तख़्त अब दीखते नहीं
आप भी तो मुझ पर मरते नहीं
कट जाये ,फिकरे कसते नहीं
अनमोल हैं ,एहसास सस्ते नहीं
पहाड़ी आसमान में उड़ते दो बादल
एक पहाड़ी ,एक विदेशी सा लगता है
दोनो को जुड़ा हुआ देख ,
पुराना याराना सा लगता है
मुस्कुराता हुआ बादलों का जोड़ा ,
पहाड़ी सुन्दरता को निहारता सा लगता है
उनकी आँखों से ये नज़ारा,
कुछ इस तरह सा लगता है
सब कुछ यहाँ धुला धुला,स्वच्छ , उजला-उजला सा लगता है
शहर की उलझनों से दूर ,थमा सा ,सांस लेता हुआ सा लगता है
दो पल रुक ,दूसरों की नयी -ताज़ी सुनता सुनाता सा लगता है
बदलते वक़्त के साथ ,किसी भी दम पर खुद न बदलता हुआ सा लगता है
पहाड़ से जुड़ा पहाड़ी कहलाने का गौरव प्राप्त करता सा लगता है
खुद जियो ,दूसरों को जीने दो का अर्थ सार्थक करता सा लगता है
हर खिलता फूल आने वाले का स्वागत करता सा लगता है
फलों से लदा पेड तेरे सम्मान में सर झुकाया सा लगता है
कहीं कोयल, कहीं कोई पंछी का स्वर, हमारा हाल पूछता सा लगता है
रात को चमकता जुगनू ,अँधेरे में राह दिखता सा लगता है
मंद मंद बहता हवा का झोंका, मेरे लिए, सिर्फ मेरे लिए बहता सा लगता है
पहाड़ के उस ओर बना घर रंगीन माचिस की डिबिया सा लगता है
दूर पहाड़ पर खड़ा देवदार का वृक्ष अपना परचम लहराता सा लगता है
ऊंची नीची सड़कों में जन और जीवन बंधा सा लगता
ऊंचा नीचा रास्ता हर दिन स्थिरता का इम्तेहान लेता सा लगता है
बड़ी सी नथ ,पिछोड़ा ओढे युवती का रूप यहाँ की संस्कृति का प्रचार करता सा लगता है
माथे पर पिठिया ,सर पर टोपी ,दाज्यू कहता हुआ युवक ठेट पहाड़ी सा लगता है
चाह कर भी वक़्त रुकता नहीं ,छुट्टियाँ ख़त्म होने में समय कहाँ लगता है?
नौकरी और रोटी की उलझन में शहर की तरफ खिंचता सा लगता है
जाऊं, न जाऊं? सोचकर विचलित सा ,त्रिशंकु की तरह लटका सा लगता है
पहाड़ी बादल हाथ पकड़कर दाल रोटी खा यहीं रुकने की प्रार्थना सा करता लगता है
पर विदेशी बादल जरूरत से लम्बी अपनी जरूरतों की गिनती गिनाता सा लगता है
जल्द से जल्द पहाड़ लौट आने का वादा देता सा लगता है
हाय !बेचारा कर्मभूमि के लिए ,जन्मभूमि को छोडता सा लगता है
विदेशी बादल आज पहाड़ से मैदान में उतरता सा लगता है
पीछे मुड़ -मुड़ कर पहाड़ी हर चीज़ को आँखों में समेटता सा लगता है
हरा -भरा उन्नत होते हुए भी अपनी जड़ों से कटा-कटा सा व्यथित लगता है
जल्द ही यहीं लौट कर बसने का प्रण अपने आप से करता सा लगता है
नीचे आता विदेशी बादल अपने भाग्य का कोसता सा लगता है
पहाड़ी बादल को दूर तक हाथ उठा-उठा शत-शत नमन सा करता है
पहाड़ी आसमान में नहीं,पूरी कायनात में उसका वजूद कायम सा लगता है
नित नए विदेशी बादलों की सोच बदलने के लिए ,वह सदा ही प्रयत्न्मान सा लगता है
आज भी वह बूढ़ा पहाड़ी बादल ,
अपने पुराने यार का इंतज़ार करता सा लगता है
आँखें बिछाये सा खड़ा लगता है
दोहे....
आज जरा कुछ सीख ले कल करना आराम
जब भी सुन्दर मैं लिखूं ,कलम यही इतराय
आज मिली कल ना मिले ,दोहों वाली शाम
जब भी बदली सोच तो ,कहलाये खरबूज
नज़रें मुझपर गढ़ रही ,घड़ा मंद मुस्काय
कागज़ कलम दवात ला , ये मेरे भी मीत
राग द्वेष सब भर लिया ,दम्भ भरी ये नाव
सब्र पुराना हो गया , वक़्त नया सरताज
फलदायी या ठूंठ हूँ ,पानी देता जाय
ऐसा मौका ना मिले राज़ दिलों के खोल
मेरी लेखनी....
बैठी हूँ एक ख़याल के साथ
लफ़्ज़ों के पर्याय ढूंढ़ती हुई
शब्दों को धोकर पोछती हुई
मिसरा बदल कर बिछाती हुई
काफ़िया कतार में सजाती हुई
लय कभी बहर उधार लाती हुई
ख़याल से बोरियत मिटाती हुई
भारी को हल्का कराती हुई
अतिश्योक्ति कर हंसाती हुई
शेरो में दिल बसाती हुई
अनेकार्थी शब्द भिड़ाती हुई
बदरंग कोशिश में रंग भरती हुई
आम बात नए लिबास में पेश करती हुई
उर्दू के शब्दों से खूबसूरती गढ़ती हुई
पर हर बार कल्पना का स्पर्श कराती हुई
अपने ख़याल को कागज़ पे खड़ा करती हूँ आपकी नज़र करती हूँ
हक़दार.....
लेटे लेटे फर्श पर
दोस्तों ने बादलों को पढ़ा
आफताब उसे
मुझे एक खंजर दिखा
जाने कब लकीरें उलझ गयी
जाने कब दोस्ती झुलस गयी
हक़दार तेरी दोस्ती के
हम भी तो
शायद कभी थे ,
शायद नहीं थे
लेटे लेटे फर्श पर
मुहब्बत ने बादलों को पढ़ा
मुझे पूनम का
उसे ईद का चाँद दिखा
मैं शर्म में बुत बन गयी
वो धर्म में ताबूत बन गया
हक़दार तेरी मुहब्बत के
हम भी तो थे
शायद कभी थे ,
शायद नहीं थे
चिकनी ख्वाइशें .......
हाथ लगती तो हैं हाथ आती नहीं
बेटी की माँ अब सर झुकाती नहीं
हया कहती तो है ,सुनाती नहीं
पीहर की हवा भी जहाँ जाती नहीं
सलवटें मेरे माथे पे आती नहीं
बंधी डोर की उड़ान भाति नहीं
अस्तित्व.....
कनेर
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...

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रिश्तों को तो रोज़ ..... ढोता है आदमी फिर क्यों बिछड़कर .... रोता है आदमी दिन भर सपने ..... कौड़ियों में बेचता रात फिर इक ख्वाब .. ब...
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"रोज़" ही मिलते हो ... "बाद मुद्दत" ही लगते हो....
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तुम..... मेरी ज़िन्दगी का वो बेहतरीन हिस्सा हो जो ....मिला बिछड़ा रुका चला पर ......आज तलक थका नहीं इसीलिए तो कहती हूँ .... बस इक "ख्...
