आसपास के कालेपन की गवाह भी
और इस दोगलेपन से तबाह भी
चाहती तो थी .....
उजली किरणों को
हथेलियों में भर लूं
खुद पर
कुछ उजास मल लूं
पर लड़े बिना जीतना
मेरे हक़ में नहीं
और शायद
रक्त में भी नहीं
लकीरों में
"ज्ञान का चन्द्रमा"
खरोंच लिया है मैंने
इक आस लिए
सौ प्रयास लिए
वादा है
मेरा खुद से
और इस ज़माने से भी ......
फटकने नहीं दूंगी
अंधियारा अपने अंश तक
"बिटिया को सूरज " सा ढब दूँगी
रंगों भरी कूची अजब दूँगी
की रंग दे वो
मेरा काला अतीत
कदाचित ही
पर अपना भविष्य
निश्चित ही
कल्पना पाण्डेय
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