फिर क्यों बिछड़कर ....रोता है आदमी
दिन भर सपने ..... कौड़ियों में बेचता
रात फिर इक ख्वाब ..बोता है आदमी
चाँद पाकर भी ... उस अर्श को ताकता
ऐसा भी गरीब .....क्यों होता है आदमी
मायूसी की चादर ...हौसले का बिछौना
ओढ़ माँ की दुआ ....फिर सोता है आदमी
रात की चाह में ......सूरज को निगलता
सब्र चुटकियों में ......यूँ खोता है आदमी
अज़ीब सी फितरत को पालता हैं उम्र भर
जवाब देंहटाएंजिसके लिए हँसता उसी के लिए रोता आदमी
अज़ीब सी फितरत को पालता हैं उम्र भर
जवाब देंहटाएंजिसके लिए हँसता उसी के लिए रोता आदमी
thank u sir... i am blessed to have u here.
हटाएंअदभुत
जवाब देंहटाएंabhaara aapka
हटाएंस्तव्ध हूँ ..आज के आदमी का सच यही है 😐
जवाब देंहटाएंस्तव्ध हूँ ..आज के आदमी का सच यही है 😐
जवाब देंहटाएंthanks
हटाएंअपनी फितरत कहाँ भूलता है आदमी .........
जवाब देंहटाएंabhaar mukesh ji
हटाएंabhaar mukesh ji
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंabhaar dilbag ji
हटाएंabhaar dilbag ji
हटाएंबहुत खूब
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