ये "शब्द" तो
बड़े सरल से थे
फिर "जुबान" से
निकल कर
"दिल" तक
और दिल से
" दिमाग" तक के
दरमियान
इतने स्वरुप
इतने अर्थ
इतने अभिप्राय
इतने भाव
बदल डाले
की अब
जटिल से
बिलकुल अजनबी
बेमोल
स्वार्थी
और
निहायत ही
खुदगर्ज़
प्रतीत हो रहे हैं
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कनेर
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...

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