क्या भरम पाले बैठो हो
सदियों से ?
नहीं चाहिए अब और
चुभन इन बेड़ियों से
"स्त्री शब्द" नाहक ही जोड़ देते हो
कभी देह से ...... कभी स्नेह से
क्यों अपना पुरषत्व
मलना चाहते हो
हर बार
बार - बार मुझ पर
जबकि जानते हो
की मेरा अस्तित्व
बेहद गहरा रंग
लेकर उभरा है
व्यर्थ जायेगा
तुम्हारा हर प्रयास
मुझे अपने रंग में रंगने का
उस " मैं " वाली कूँची से
आस पास अपने
सिर्फ और सिर्फ उजियारा
बांधे रखा है
की ये कहने को तो "चक्षु"
पर असलियत में "भिक्षु नैन"
मुझ पर मल न सके .... अंधियारा
उस न ख़त्म होने वाली रात्रि का
यकीन है ...... मुझे खुद पर
अपने हर शब्द पर
"स्त्री वाली" हर ढब पर
हाँ हाँ ..... ठीक सुना तुमने
यकीन है मुझे खुद पर !
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