आज भी ....
तुम्हारे लिखे खतों का ......
ज़ायक़ा वही है......
बस जरा .....
चाश्नी कम .....नमक ज्यादा हुआ
क्या करूँ ?
बहते .....
गीले .....
सीले......
लफ़्ज़ों का
अब लहज़ा यही हुआ
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...
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