सपने बोये थे उसने
कुछ ही अरसा पहले
कि लहलहाएंगे
कुछ सुकून के फूल
कुछ ही पल के लिए सही
इक आस तो होगी
कि कुछ पनपा लिया
इस बंजर किस्मत से लड़ के
पर जानता है वो
कि भगवान् भी
परखने के लिए
उसी को चुनता है
हर बार
हर कसौटी में
कसने के लिए
क्यूंकि मानता है
सिर्फ और सिर्फ उसे
मेहनतकश ....
लड़ाकू ....
जुझारू ...,
इसीलिए तो
बहा ले जाता है
उसका सब्र
हर बार
और वो है
कि उगा ही लेता है
उमींद की नयी पौंध
हर बिगड़ते मौसम में
खुद कैक्टस बन कर
कल्पना पाण्डेय
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