....
ये स्मृतियाँ ....
जब कभी रुक कर पीछे देखती हूँ
स्मृतियों का एक समुन्द्र दिखता है
मेरे रुकते ही ....
वहीँ रुक कर
हिलोरे खाने लगता है
ये स्मृतियाँ ....
कभी मेरे चट्टान होने का बिम्ब देती हैं
कभी रेत में त्रुटियाँ उकेर प्रतिबिम्ब देती हैं
कभी सीप में मोती सी सफलता दिखा देती हैं
कभी गोल घिसे पत्थरों सा अहम् बिछा देती हैं
कुछ स्मृतियाँ
"मगर "सा मुंह खोले हुए उत्तर के इंतज़ार में हैं
कुछ समुंद्री पौंधों की तरह "तृप्त "बस प्यार में हैं
कुछ बार बार जाल में फंसने को तैयार हैं
कुछ जहाज़ के लंगर की तरह मुझमें बेकार हैं
कुछ स्मृतियाँ
रोज़ ढलते सूरज की गोद में पसर कर सो जाती
कुछ जो समुंद्री बादल की तरह बस खो जाती
कुछ उड़ती मछलियों सी उठकर गिर जाती
कुछ एक सुनामी जो यदा कदा भिड जाती
अनगिनत रूप
अनगिनत नाम
अनगिनत किरदारों को ओढ़ती ये स्मृतियाँ
मेरे साथ चलती हैं
सिर्फ मुझसे बोलती हैं
मुझमें रहती हैं
अथक
अनवरत
अविराम
क्यूंकि
"मैं " इन स्मृतियों की सृजक हूँ
और शायद
पोषक भी
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