जब ....
अपनी ही आवाज़
"अनसुनी "
लौट आती है
अपने ही लफ्ज़
समेटने पड़ते हैं .....
किसी बैरंग लिफ़ाफ़े में
बस भरने पड़ते हैं......
"सिर्फ तुम्हारे लिए" ....
लिखकर रखने पड़ते हैं .....
इसे ...
"इंतज़ार" कहूँ ?
या ....
"तन्हाई" नाम दूं ?
या ...
पलट के
"उमींद" की
इक पुकार और ....
फ़िज़ा में भर दूं ?
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