ये ख्वाइशें भी .....पानी सी
"बचपन " में .....द्रव्य सी ,
बह जाती....मासूम सी
उफन जाती ....जिद्द सी
"जवानी " में ....ठोस सी ,
जम जाती ...बर्फ सी
हो जाती.....सख्त सी
" बुढ़ापे " में ......भाप सी ,
उड़ जाती......अदृश्य सी
रह जाती......स्वपन सी
"कनेर" तुम मुझे इसलिए भी पसंद हो कि तुम गुलाब नहीं हो.... तुम्हारे पास वो अटकी हुई गुलमोहर की टूटी पंखुड़ी मैं हूँ... तुम्हें दूर ...
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