सुनो .....
फिकर ना करो मेरी !
अकेले अँधियारे रास्ते अब चुभते नहीं
सच कहा था तुमने ....
पत्ते जो साख से टूटे तो फिर रुकते नहीं
कोई फरक नहीं पड़ता ....
की चाँद बादलों से घिरा है
या ....पानी में तैर रहा है
मैं तो ...
अपने हथेलियों में उभरे चाँद को
लालटेन में देख लूंगी
न हुआ तो ....
उछल के दो चार जुगनू तोड़ लूंगी
उजियारा ही तो भरना है ना ....
इस रात के ......मर्तबान में
इक टुकड़ा धूप ले क्यों नहीं लेते ....
मेरे ........उनवान से
हाँ .....हाँ
पूरे होश में हूँ
क्यूँ ना कहूँ ?
कि ...मैं जोश में हूँ !
अब मैं ......
अंधेरों में रौशनी नहीं ढूँढ़ती
अंधेरों में रौशनी को टांक देती हूँ
अपनी तरफ बढ़ता हुआ ....
हर सांवलापन
बाहर हाँक देती हूँ
और सुनो .....
वो भी .....तुम्हारे बिना !
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