तुम ......
आज भी ख्वाइशों का ......ऐसा "सागर" हो
जिसमें .....हर सुबह ...."मैं "
अपनी "गागर" ......
तुम्हारे ख़्वाबों से भर लाती हूँ
दिन भर ......
छलकती रहती हूँ
बहकती रहती हूँ
और ......
साँझ होने पर .....
वही ......अपने रहे - सहे ख्वाब
तुम में उड़ेल आती हूँ
रत्ती रत्ती ही सही .....
तुम भी तो .....
मेरी ही ख्वाइशों से भरते रहते हो
अब समझी ...... आज भी
मैं .....गागर होकर भी ....
क्यों प्यासी नहीं हूँ ?
तुम..... सागर होकर भी .....
कुछ -कुछ रीते क्यों हो ?
© कल्पना पाण्डेय
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