स लम्हा
वो आँखें
सिर्फ और सिर्फ
मेरी थी
बस
दरमियान हमारे
इक जश्न
खामोशियों का था
धधक रही थी ख्वाइशें
रूहूँ में
और संग
बिखरता ख्वाब
आजमाइशों का था
उड़ जाने को ज़िद्दी
लम्हों की इक लड़ी
न बर्दाश्त होती
जुस्तज़ू तेरी
और
इक लट्टू दिल
ख्वाइशों का था
इक गिला
जो चीख रहा था
लकीरों में
छु नहीं सकती ?
कह नहीं सकती ?
ऐसा कुछ
मेरी फरमाइशों में था
उस लम्हे को
बंद आँखों से
रोज़ महसूस करती हूँ
और इक
नयी दुआ से
रोज़
ढँक लेती हूँ
कभी तुझे
कभी उस लम्हे को
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