उस रोज़ "ज़िन्दगी "मिली
सजी धजी
सोलह श्रृंगार किये
मैंने रास्ता रोका
और सवालों की झड़ी लगा दी ......
सुन !
तू चुपचाप
सीधे चलना कब सीखेगी ?
क्यों भाता है तुझे दोराहे पर खड़ा होना ?
और फिर खोखले रिवाजों के खातिर बड़ा होना
क्यों चाहती है अस्तित्व को परखना ?
और फिर रिस्ते रिश्तों को कांधों पर ढोना
क्यों जरूरी है तेरा हर मोड़ पर मुड़ना ?
और फिर झुकना -गिरना ,बस शून्य होना
क्या सही है मुझे धुंध भरी राह में धकेलना ?
और फिर मुझी से लुक्का - छिप्पी खेलना
कब छोड़ेगी सुख दुख के झूले को पींगे देना ? और फिर मुझे यूँ हवा में टंगा देना
"ज़िन्दगी "निहायत ही
कातिलाना अदा से बोली
"हुनर है ये मेरा "
मेरे "हुजूर"
आपको खुबसूरत "शक्ल "दे रही हूँ
इन अनुभवों में पीस के "अक्ल "दे रही हूँ
और
एक मीठे पान की गिलौरी
मेरे होठों पर धर दी
कल्पना पाण्डेय
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