"कैक्टस" हो गए हैं .....हम सब
कांटे उग आये हैं ......हममें
बेहद खुश्क....
निरे शुष्क ......
पर ......"ज़िद्दी" भी तो है ...हम
इन काँटों में ही सही .....
सुबह से .......शाम तक
"ख्वाइशों के जुगनूं"
टाँकते जाते हैं
और .....
रात को .......ख़्वाबों में
"खुद को" .....टिमटिमाता पाते हैं
बस .....
मुस्कुराता हुआ पाते हैं
फिर हम ....कैक्टस कहाँ रह जाते हैं ?
© कल्पना पाण्डेय
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें