मैं शब्द हूँ..... तुम्हें छिपा नहीं पाऊँगी
ज़ाहिर भी कर दूंगी तुमको
और दिखा भी नहीं पाऊँगी
तुम मेरी कहानी का वो मुड़ा हुआ पन्ना हो जो चल रहा है मेरे साथ ।
ज़रा ज़रा पीला हुआ है ,पर मुझे तो अपने साथ सुफेद होता दिख रहा । शायद बुढा रहा है मेरे साथ ।
तुम कभी इत्तेफाक हो ही नहीं सकते मेरी कहानी में
तुम इक सोची समझी साजिश हो जिसमें इश्क़ ने मुझे चुना और मैं तुम पर फ़िदा हो गयी ।
अब कहानी अगर आगे चले नहीं तो बिखर जायेगी ।
इसलिए जब तक मैं हूँ ......
तुम्हारा मुड़ा पन्ना मेरा all time favourite रहेगा ।
तो बस चलते रहो मुझमें .....
जब मैं खुश होती हूँ,
तो इश्क़ लिखती हूँ
और जब बहुत खुश होती हूँ
तो इश्क़ उकेरता है मुझे
इश्क़ तो शब्दों को हुआ है
मेरा क्या ......
मैं तो बस लिखती जाती हूँ
ख़ुशी - ख़ुशी
मुझसे इश्क़ की हिमाकत ना कीजिये
मैं शब्द हूँ..... तुम्हें छिपा नहीं पाऊँगी
ज़ाहिर भी कर दूंगी तुमको
और दिखा भी नहीं पाऊँगी
तसल्ली रखियेगा....
मेरे मोह मोह के धागों में आप बंधे रहेंगे
कभी ख्वाइश से
कभी गिरह बनकर
इश्क़ भी उगता रहेगा
बस..... शब्द नहीं होंगे
मैं अपने ढाई आखर इन धागों में पिरो लिया करुँगी
प्रेम के नहीं .... शब्द के
अब से तुम्हारे लिए ......नहीं सिर्फ अपने लिए
तसल्ली रखियेगा.....
मेरे मोह मोह के धागों में आप बंधे रहेंगे
कभी ख्वाइश से
कभी गिरह बनकर
तुम" तक भी शायद "मैं "ही अकेली चल कर आयी थी
अब ....
"आप "से भी वापसी "मैं "खुद ही तय कर लूंगी
चटकी हूँ........ बिखरी नहीं हूँ मैं
मैं होंगी ज़रा पागल ... मैंने तुमको है चुना
ज़रा सी खुद की कद्र क्या कर ली मैंने ...
कोई नाराज़ हो गया
कुछ रिवाज़ हो गया
मुझे रसीदी टिकट नहीं चाहिए .... तुमसे
मैं खुद -बखुद इक मोहर हूँ
मेरी कहानी के पहले शब्द से आखिरी शब्द तक
और फिर .....
उस पूर्णविराम के बाद भी
कई कोसों दूर तक.......
कोई किरदार नहीं दिखता......... सिवाय तुम्हारे
आदत इसे कहते हैं ......
दिन भर मैं शब्दों में खूबसूरती ढूंढती हूँ .....
तुम्हारी तलाश मुझमें ख़त्म होती है
रात तक मेरे शब्द कहर ढाते दिखते हैं.......
काश ....
खूबसूरती लिखी जा सकती
जब भी कुछ लिखती हूँ .....
तो तुम बला के खूबसूरत नज़र आते हो
और ....
वही अपना लिखा हुआ जब तुमसे सुनती हूँ ....
गज़ब खूबसूरत हो जाती हूँ मैं
वादा लिखे जाने का
या .....सुनाये जाने का नहीं है
वादा खूबसूरती का है ....मेरे शब्दों से
मुझसे
तुमसे
बस रह जाने का है.... खूबसूरत
हर बार .......बार बार
मुझमें
तुम में
हम में
दिन के उठने से कई घंटों पहले....
अपना सूरज उगा लेती हो
और देर रात तक.....
इन तारों को बुहारती रहती हो
ज़िन्दगी.......
तुम भी "औरत" हुए जा रही हो
अंतर है ....
तुम खुले दरवाज़ों में भी दस्तक नहीं देते
मैं बंद दरवाज़ों पर भी अपनी अर्जी धर आती हूँ
कुछ फ़ासले तय नहीं किये जाते ....
बस रख दिए जाते हैं दरमियां
"खलिश" और "खला"जैसे शब्द रोपने के लिए
इस पार से उस पार की दूरी खुद सोखने के लिए
ऐ इश्क़ ......
मेरे लफ़्ज़ों में रूह भरने का शुक्रिया
😊😊😊😊😊
आज इससे बेहतर लिखने का मन नहीं .....😊😊😊😊😊
मेरे वो सारे लफ्ज़ "पुरुष" हैं ....जो इबादत करते हैं
और .....
वो सारे शब्द "स्त्री" .......जो क़ुबूल करते हैं
फिर चाहे..... वो ज़िन्दगी की नज़्म हो
या फिर ......इश्क़ की ग़ज़ल
याद है .....
इस मोड से उस मोड़ तक
हमने इक सदी ठहरा रखी थी ....
जो आज भी .... सिर्फ तुम्हें दिखती है
और ....सिर्फ मुझे महसूस होती है
इस मोड़ से उस मोड़ तक ....
इक रेशमी सदी ...
हम तुम ....संग संग .....आज भी .....अब तलक
बस अभी लौटे हैं महफ़िल से मेरे शब्द ....
आते ही बोले ....कल्पना !
हमें तालियों की गड़गड़ाहट नहीं
मौन रूहों को आहट सुना दिया करो
शोर में जी घबराता है
जब तक कि मैं वो दास्तां समेट पाती ....
तुमने कुछ शब्द बहा दिए
कुछ जला दिए
अधूरी कहानियों को सीने वाले शब्द....
कहीं तो मिलते ही होंगे बाज़ार में
आज कलम...... कुछ ख़ास बिनेगी
सोचती हूँ ....
निकलूँ खुद से
और ....इन शब्दों में घर बना लूँ.....
तुम भी तो वहीँ कहीं रहते हो शायद
😊😊😊😊😊😊😊
सुकून ढूंढते ढूंढते तुम जरुरत हुए
जरुरत होते होते ...प्यास बन गए
तुम सुकून कहाँ रहे ?
ये इश्क़...... इतना बुलबुला क्यों है ?
तस्वीर यहीं कह रही शायद .... सुनके देखियेगा इक बार
जाने कौन सा रिश्ता है ......
जो हर बार तुझसे मिल कर फिर शुरू हो जाता है
हूबहू पहली बार की तरह .......
सुनो ....
आज इस दिल को लपेट कर रख दो
बस इक हंसी रहने दो ......दरमियां
थोड़े लफ्ज़ .....खट्टे मीठे
इक टुकड़ा ....इश्क़
और वो .....वो इक हिस्सा सुकून भी
इक साज़ ....
इक.... सरकती रात
कुछ मोगरे ....ये रंग पिघलते
इक.... जलता दिया
और रत्ती भर ......तुम
और मैं ....
मैं इन सब में ज़रा ज़रा
अर्ज़ है ....
ख्वाइशों की
कुछ हो न सके ...
इसलिए तो इतना सारा हो गए तुम्हारे लिए
होने की आस और.............................................
................................ ना होने के आभास के बीच
ख्वाइशों का क्या है ....
कभी इक मोगरे की लड़ी में भी सिमट जाती है
कभी उसे तुम भी चाहिए होते हो
Depends ....आज मेरी ख्वाइश का तेवर कैसा हैं ....☺☺☺☺☺☺
इन खामोशियों को उधेड़ोगे तो मेरे शब्द नज़र आएंगे
और फिर जब इन्ही शब्द को बुनोगे तो मेरी खामोशी
जाल तो मैं शानदार बुन ही देती हूँ ... है ना ?
और तुम फंस भी जाते हो .... है ना ?
इस रात ने ....उस चाँद को
न जाने ये कितनी बार कहा होगा
और
उस चाँद ने ....इस रात को
न जाने कितनी बार फिर बुना होगा
जब तुम नहीं मिलते ....
तो खुद में ठिठक कर खड़ी हो जाती हूं ....
यहाँ वहां खो जाने से बेहतर है.......
खुद में रुक जाना
जब होते हो .....
तब भी कितना कम होते हो मेरे पास
और जब नहीं होते......
तो कितना ज्यादा
तुम भी ...... अपने शब्दों की तरह मायावी हो
इक बात कहूँ...?
मेरे लिए सीमाएं बनाना ......
और फिर....... खुद अपनी तोड़ देना
कोई ......."तुमसे" सीखे
और ......सीमाएं लांघना....... "सिर्फ मुझसे "
चीखते नहीं मेरे शब्द
बस .....गुनगुना देते हैं तुम्हें
सच कहा तुमने......" सयाने " हो गए हैं
इंसान हो.....
सुना है .... रिश्ते निभाने में माहिर हो
फिर मेरे लिये ही क्यों ?
हर रिश्ता समेट कर बैठ जाते हो
सारी अनुभूतियाँ लपेट कर बैठ जाते हो
कितना कुछ पनपा लेने का फख्र हासिल है मुझे
पर खुद के लिए तुमसे इक शून्य ही पनपा पायी हूँ
अपना ही दुःख आज तलक नहीं समझा पायी हूँ
पृथ्वी ....धरा
भूमि.... वत्सला
बस...... नाम ही तो दिया है तुमने मुझे
इस लिए शायद
नाम भर का ही रिश्ता रखते आये हो
भाई होते तो.... संजो के रखते अपने हाथों पर ,
पिता होते तो ......उठाये फिरते अपने काँधों पर ,
माँ होते तो ....उढ़ाते जाते धानि चुनरिया ,
बहन होते हो ....बढ़ाते जाते मेरी उमरिया
जाओ.....
मेरे लिए भी कोई रिश्ता गढ़वा लाओ
ये" देने -लेने" के अलावा
मेरे लिए भी कोई ख़ास वजह मढ़वा लाओ
सुना है..... तुम इंसान हो
सुना है .....काफी महान हो
लो...... चाँद भी बुझा दिया
अपने शब्दों की लौ भी कम कर दी
मुस्कुरा देते तो.... रात रानी खिल जाती
कौन कहता है ...तुम "खूबसूरत" हो ?
ये तो "शब्द" हैं मेरे .....
जो तुम पर खूब फबते हैं
छूते हैं तुमको ....
और खूब हँसते हैं
करीब से देखोगी तो .....मुझमें शब्द मिलेंगे
और
बेहद करीब से प्रारब्ध
कल्पना ने कल्पना से कहा .....☺☺☺☺☺
वो सारे शब्द .....
जिनमें तुम्हारी परछाई थी ......दूर तक गए
शायद पहुँच गए
बाकि तो बस थक कर बैठ गए हैं ....
किसी किताब के किसी मुड़े हुए हर्फ़ पर
जरूरी नहीं .....कि लिख देने भर से
मैं "ज़ाहिर " हो जाऊं
ज़ाहिर कर देने वाले मेरे शब्द पारदर्शी हैं ....
सब ही को दिखते हैं
बस गिने चुनों को महसूस होते हैं ....
और ज़ाहिर .......
कुछ ख़त ....
अपनी लकीरों में "सफर " ही लिखवा कर लाते हैं ....
पहचानते हैं अपना मंज़िल ........
पर...
दो कदम पहले रूक कर ........लौट आते हैं
क्योंकि....
वो पहुंचना नहीं .......मंज़िल पाना चाहते हैं
कह देती हूँ अपनी ख्वाइशें इस समुन्दर से
इक वही है जो पलटकर हामी भरता है
असीम मैं .....अनंत वो
Perfect combination
Mutual admiration
जब शब्द "स्त्री" होते हैं तो .....
कितना कुछ कह जाते हैं ........"पुरुष" को
और
जब कभी "पुरुष" होते हैं तो .......
जाने क्या क्या कह जाते हैं ......."स्त्री" को
शब्दों को शायद कुछ नहीं होना चाहिए ....
शब्दों से इमरोज़ तो बहुत मिल जाते हैं ...
पर अमृता वाला इमरोज़ तो फिर हुआ ही नहीं ....
जैसे इमरोज़ वाली अमृता फिर कभी नहीं हुई ....
जन्मदिन मुबारक अमृता जी ....
इश्क़ मुबारक अमृता जी.....
कल्पना पांडेय
आसपास ....
इतने शब्द ......इतनी संवेदनाएं
बिखरी पड़ी हैं कि ......
जिसे उष्मा दो ......वो बोल पड़े....
बस .....
मन का अलाव ......प्रेम से सुलगा होना चाहिए
कभी कभी ....
शब्दों को घोल कर.....पी जाना भी
इक बेहतरीन विकल्प हो सकता है ....
अपने "मैं" को ...यूँ ही .....क्यों जाया करना ?
कुछ तो आकार होता ही होगा इन शब्दों का.......
या तो.....
नुकीले होते होंगे
रूह से लहू रिसाने वाले
अपना "मैं"..... चुभाने वाले
या फिर....
गोल गोल घिसे हुए
रूह से रूह सहलाने वाले
मेरा "मैं"...... दिखाने वाले
इनके आकार..... प्रकार से ही तो "मैं " जीवित है
मेरा भी.....
तुम्हारा भी .....
सादी सी बात सादगी से कहो न यार .... जाने क्या क्या मिला रहे ..... फूल पत्ते मौसम बहार सूरज चाँद रेत समंदर दिल दिमाग स...